‘कोरोना-अभिशाप’ : प्रकृति के लिए वरदान!

डा. अपर्णा (धीर) खण्डेलवाल

हमारे जीवन को सरल बनाने वाले औद्योगिकरणों एवं वैज्ञानिक सफलताओं ने कहीं न कहीं हमें प्रकृति से कोसों दूर कर दिया। आज हम हरे-भरे उद्यानों की छाया एवं मनोरम छवि, नदियों की तरंगपूर्ण शीतल लहरों की  कल्कलाहट, शुद्ध वायु, सूर्य की निर्मल पहली किरण से जगमगाते हुए आसमान की लालिमा, पक्षियों की चहचहाहट, भ्रमरों का गुंजन, तित्लियों के रंग-बिरंगे पंखों का फैलाव, फूलों की सुगन्ध, चांदनी रातें, टिमटिमाते हुए तारे आदि प्राकृतिक अनुभूतियों को छोड़ अत्यन्त व्यस्त जीवन जी रहे थे। इस जीवन में न तो प्रकृति के लिए समय था, न ही परिवार के लिए। समय था तो केवल चुनौतियों से भरे हुए अहंकार-पूर्ण जीवन के लिए। इन चुनौतियों को पूरा करने और लौकिक सुखों के उद्देश्य में मानव यह भूल गया कि वह अपनी लापरवाही से प्रकृति का अनजाने में कितना दोहन प्रतिदिन प्रतिक्षण किए ही जा रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप आज हरियाली खत्म होती जा रही है, वायु में सांस नहीं लिया जा रहा, नदियों का जल पय नहीं रहा, अत्याधिक वर्षा भूस्खलन का कारण बन गई इत्यादि। इन्हीं सब चिन्ताओं से आज हमारे शरीर रोगग्रस्त हो रहे हैं।

2020 के दस्तक देने से पूर्व ही ‘कोरोना’ विश्वपटल पर धीरे-धीरे चुपके-चुपके पैर पसार रहा था। पहले चीन फिर यूरोपीय देश फिर समस्त विश्व का सिकंदर बना अमेरिका इसकी चपेट में आते जा रहे थे….. और फिर बारी आई अपने भारत की। अत्यन्त घातक यह ’कोरोना’ समस्त विश्व में कोहराम मचाकर लाखों की संख्या में मानव जाति को पीड़ित कर रहा है। यह स्थिति कहलाई जा रही है ’कोरोना-महामारी’। इस स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए अथवा उसके संक्रमण से सम्पूर्ण मानव-जाति को बचाने के लिए…….सभी देशों में धीरे-धीरे सम्पूर्ण बंद (lockdown) की स्थिति आ गई। देखते ही देखते देश-विदेश के समस्त बड़े-बड़े उद्योग, यातायात के साधन, लोक-व्यवहार, बाज़ार, उत्पादन, खरीद-बिक्री एक के बाद एक बंद होते चले गए। कोई इसे प्राकृतिक-आपदा कहने लगा तो कोई मानवीय त्रुटि। किसी का भी ध्यान प्रकृति के कायाकल्प की ओर नहीं जा रहा। सब ओर हाहाकार ही सुनाई पड़ता रहा। अगर हम ऐसा मान लें कि शायद प्रकृति हमारी व्यावहारिक ज़िन्दगी से थकने के कारण थोड़ा विराम लेना चाहती थी……तो शायद ’कोरोना-महामारी’ सहज लगने लगे।

वास्तव में प्रकृति केवल वही नहीं जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के चारों ओर आच्छादित है, जिसे हम ‘पर्यावरण’ के नाम से जानते हैं अपितु प्रकृति के दोनों रूप हमें जानने चाहिए – बाह्य प्रकृति और आन्तरिक प्रकृति। बाह्य प्रकृति में समुद्र-नदियाँ, पर्वत, वृक्ष-पौधे, वायु आते हैं। आन्तरिक प्रकृति में हमारे विचार आते हैं। दोनों प्रकृतियों को सहेज के रखना ही हमारा कर्तव्य है, तभी प्रकृति और हमारा आपसी संतुलन बना रहता है।

बाह्य प्रकृति –

प्रकृति के साथ सम्बन्ध की अनुभूति ही सिद्ध करती है, हमारा प्रकृति के प्रति स्वभाव। प्रकृति और मानव जीवन का सामञ्जस्य एवं संतुलन ही पर्यावरण का संरक्षण कहलाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण अथर्ववेद (12.1.12) का मंत्र है-

माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।

भूमि मेरी माता है और मैं भूमि का पुत्र (संतान) हूँ।

जब हम सम्पूर्ण पृथ्वी की ही कल्पना अपनी माँ के रूप में कर लेते हैं तो कभी भी पृथ्वी के अंगभूत उसके वृक्ष, नदियाँ, वायु, पर्वत आदि को प्रदूषित नहीं करते और उनके प्रति स्नेहमयी दृष्टि रखते हैं।

‘कोरोना-महामारी’ से पूर्व खानों की खुदाई; तेल, कोयले, लकड़ी जैसे ईंधनों की खपत, समुद्री जीव-जन्तुओं का जीवन, जंगलों की कटाई, दूषित नदियाँ, मांसाहार आदि प्रदूषण पर्यावरणविदों की गम्भीर चिन्ता के विषय थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाएँ प्रतिदिन प्रदूषण से होने वाली अनेक प्रकार की व्याधियों के रोकथाम एवं जागरूकता के लिए नए-नए चिकित्सीय दिशा-निर्देशों को निर्दिष्ट करता रहता था। 

अभिशाप बनकर आये इस ’कोरोना-काल’ में अर्थशास्त्री बाज़ार के उतार-चढ़ाव देखते रहे परन्तु चिरकाल से चोट खाई इस प्रकृति ने समस्त हानिकारक प्रदूषको में भारी गिरावट कर खुद को ही नया सा कर लिया।

नमामि गंगे’, ‘स्वच्छ वायु परियोजना’  एवं स्वच्छ भारत अभियान’  जैसी योजनाओं के चलने से भी जहाँ असर नहीं आ रहा था, वहीं इस ‘कोरोना-अभिशाप’ की गोद में छिपा था साफ आसमान, साफ नदियाँ, स्वच्छ वायु का वरदान (https://www.ndtv.com/news/view/ndtv/2216600/site=classic/?device=androidv2&showads=no)। कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि ’कोरोना’ ने मानव को प्रकृति की नूतन छवि के दर्शन करा उनके परस्पर सम्बन्ध को और अधिक क़रीबी बनाया।

आन्तरिक प्रकृति –

व्यक्ति के सोच-विचार ही उसकी आन्तरिक प्रकृति की नींव है। मनुष्य के विचारों से ही उसका स्वभाव बनता है इसीलिए ‘कोरोना-काल’ में स्वयं को तनाव मुक्त करने के लिए तथा सद्विचार हेतु ‘ताली’ और ‘थाली’ की गूँज के साथ दियों की जगमगाहट दिखाई दी। वैदिक मंत्र ‘तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु’ (वाजसनेयी संहिता 34) का सकारात्मक दृष्टिकोण भारत के प्रधानमंत्री जी ने कुछ इस प्रकार प्रकट किया-

शुभं करोति कल्याणमारोग्यं धनसंपदा।

शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपज्योतिर्नमोऽस्तुते॥

यही दर्शाता है कि ‘कोरोना’ को संकट नहीं अपितु उस अंधकार के रूप में माना गया है जिसके बाद सवेरा निश्चित है- ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय’ (बृहदारण्यक उपनिषद् 1.3.28)। वैदिक विचारधारा से ओत-प्रोत भारत आपद-काल में यही सकारात्मक संदेश समस्त विश्व तक पहुंचा रहा है।

संगठित समाज और संयुक्त-परिवार-व्यवस्था ही वसुधैव कुटुम्बकम् की नींव है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था प्रारम्भ से ही इसकी सराहना करती है। वर्तमान ‘कोरोना-संक्रमण-काल’ के कारण सम्पूर्ण विश्व में चल रहे बंद (lockdown) ने समस्त विश्व को सामाजिक एकता एवं पारिवारिक सम्बन्धों में परस्पर सामंजस्य का पाठ पढ़ाया है। तनावपूर्ण वातावरण में परस्पर सौहार्द ही मानसिक बल प्रदान करता है, जिससे आत्मघाती अवसादों को नियंत्रित किया जा सकता है।

स्वयं को पहचानना अर्थात् अपनी क्षमताओं और कमज़ोरियों का ज्ञान परमावश्यक है। आज हम कहीं न कहीं आत्म-मूल्यांकन भूल चुके हैं। इस ‘कोरोना-संकट’ ने हम सभी को भागदौड़ से हटाकर ’स्वाध्याय’ के लिए प्रेरित किया है-

स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ (तैत्तिरीय उपनिषद् 1.11.1)

सांसारिक क्रियाकलापों से परे आत्म-निहित साधना ही हमें योग और ध्यान की ओर ले जाती है- असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं……वैराग्येण च गॄह्यते’ (गीता 6.35) | इस आपत्ति-काल ने ‘आत्मानुशासन’ भी सिखा दिया।

इस प्रकार ‘कोरोना’ ने बाह्य और आन्तरिक दोनों ही प्रकृतियों में नूतनता के दर्शन कराये हैं। ऐसा लगता है कि ‘कोरोना-काल’ के बाद विश्व में कई बदलाव दिखेंगे, यथा- पारिवारिक-सम्बन्धों में, पर्यावरण-संरक्षण के प्रति, आत्म-विश्लेषण में, तथा सकारात्मक ऊर्जा के रूप में।

हम जीवन के प्रति उदासीन हो रहे हैं पर

प्रकृति स्वयं को हमारे लिए पुनर्जीवित कर रही है……….

Dr. Aparna (Dhir) Khandelwal, Assistant Professor, School of Indic Studies, INADS, Dartmouth