अंतर्राष्ट्रीय नारी दिवस इस बार सीता जयंती के आस-पास होने से स्वाभाविक विचार आया कि क्या होता यदि सीता नारीवादी होतीं? यदि होतीं, तो किस तरह का नारीवाद प्रतिपादित करतीं? क्या आज का नारीवादी समूह (फेमिनिस्ट ग्रुप) उन्हें स्वीकार करता? ऐसा माना जाता है कि संसार में ऐसी कोई विचारधारा नहीं, जो महाभारत काव्य में न मिले, और उसी तरह विश्व में ऐसा कोई चरित्र नहीं, जो रामायण अथवा रामचरित मानस में न मिले। इस प्रकार नारियों के अनेक रूप रामायण के घटनाक्रमों में दृष्टिगोचर होते हैं। इनमें कैकेयी, कैकसी, कौशल्या, मंथरा, ताड़का, तारा, मंदोदरी, रुमा, सूरसा, सिंहिका, शबरी, सीता, शूर्पणखा, स्वयंप्रभा, सुलक्षणा, मांडवी, उर्मिला, श्रुतकीर्ति, अहिल्या, अनुसूइया, लंकिनी, इत्यादि उल्लेखनीय नारियाँ रही हैं। वैसे तो इन सभी नारियों के साहस, स्वातन्त्र्य, सामर्थ्य एवं समर्पण की अपनी अद्भुत कहानियां हैं, नारीवाद के प्रसंग का यथोचित प्रतिपादन सीता और शूर्पणखा चरित्र से प्राप्त हो सकता है।
हम देखते हैं कि सीता और शूर्पणखा ये दोनों क्रान्तिकारी महिलाएँ थीं। शूर्पणखा ने उस त्रेता काल में अपने मन से विवाह किया था। हालांकि, रावण ने उसे स्वीकार नहीं किया था। लेकिन, उसके बावजूद वह सेना की एक कमांडर, हुआ करती थी, और पूरा दंडकारण्य उसके अधीन था। इसलिए उसने राम को, जब वे वहाँ पहुँचे, तो ललकारा। तो ऐसी वैसी महिला नहीं थी शूर्पणखा। वह बलिष्ठ थी और अपने क्रान्तिकारी विचारों के आधार पर ही उसने कार्य किए। उसने अपने महाबली भाई रावण से एक समझौते के अंतर्गत उस क्षेत्र का कार्यभार संभाला था, वह सबला थी, अबला नहीं। वह कूटनीति में निपुण थी, रणनीतिज्ञ थी। रूप, रंग, तेवर बदलने के गुण थे, उसके अंदर। खर, दूषण जैसे सेना नायक उसके आदेश का पालन करते थे। और वह यह सब अपने क्रान्तिकारी विचारों के कारण थी। वह स्वच्छंद, मनचली थी। उसके राम या लक्षमण के ऊपर आसक्ति केवल स्वच्छंदता ही नहीं, बल्कि रणनीति को भी दर्शाती है। राम रावण युद्ध की मुख्य पात्र वही थी।
सीता भी कम नहीं थीं, लेकिन व्यतिरेक है। सीता को प्रायः एक अनुसेवी, आज्ञाकारी, समर्पित महिला के रूप में दिखाया जाता रहा है, परन्तु सीता जन्म से ही एक क्रांतिकारी स्वभाव की व्यक्ति थीं। दो घटनाओं से यह पता लगता है – एक कि, राजा जनक ने कहा था कि, ये धनुष शिवजी का है, कोई उसको उठाएगा नहीं। और क्या किया सीताजी ने? पहले धनुष को उठा दिया। अपने पिता की अवज्ञा करके उठा दिया। ये तो दूसरी बात है कि धनुष बहुत भारी था, उठाईं कैसे। लेकिन उन्होंने कहा कि, शिव का धनुष है, तो मैं क्यों नहीं उठाऊँ, मैं साफ करूँगी, मैं उठाऊँगी। और दूसरा, जब राम और लक्ष्मण जब वन जाने लगे, तो कैसे उर्मिला नहीं गईं, कैसे सुमित्रा ने इस बात के लिए लक्ष्मण को मनाया, लेकिन सीता को कोई नहीं मना पाया। बहुत सारे सन्दर्भ कहे गए हैं, जिसमें सीता को प्रकृति के बारे में बहुत ज्ञान था, लेकिन दर्शन की भी वह बहुत बड़ी ज्ञाता थीं, और उन्होंने दर्शन के आधार पर राम से वाद-विवाद करके ये सिद्ध किया कि, नारी का स्थान पति से परे नहीं हो सकता है, खासकर अगर पति विपत्ति में हो तो। इसलिए वह भी एक ऐसी नारी थीं, जिन्होंने क्रान्तिकारी विचारों का आचरण करके अपने जीवन के आदर्शों का पालन किया।
सीता के विद्रोही विचारों की और भी झलक मिलती है, जब उन्होंने अपने देवर लक्षमण की खींची रेखा को भी भिक्षा देने हेतु पार किया, और लंका से हनुमान जी के साथ अकेले आने से इंकार कर दिया था। लेकिन इन विद्रोही कार्यों में भी उनके कर्तव्य पालन की ही छवि दिखती है। लक्षमण रेखा भी पार कर उन्होंने रघुकुल को किसी भिक्षुक को खाली हाथ लौटने के कलंक से बचाने, तथा पापी रावण को दंड दिलवाये बिना हनुमान जी के साथ लंका से वापस आने से इंकार किया था।
अंत में सीता जी अयोध्या आने के पश्चात् निष्कासन की बात आती है, जिस पर लोग (विशेषतः महिलाएं) बहुत सारी आपत्तियाँ जाहिर करते हैं। वह घटना भी एक सन्दर्भ में ही समझी जा सकती है। भारत की परम्पराओं में खासकर के उस समय की परम्परा में जब राजा सिंहासन पर बैठता था, उसका राज्याभिषेक होता था, तो रानी का भी राज्याभिषेक होता था। सिर्फ राजा का राज्याभिषेक नहीं होता था, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि, रानी राजा से किसी तरह से कम हो सकती है। तो राम कौन होते हैं उनको निकालने वाले? अगर उनका भी राज्याभिषेक हुआ, तो ऐसा नहीं हो सकता है।
दूसरी बात यह है कि, उस समय राजतंत्र नहीं हुआ करता था, बल्कि प्रजातंत्र हुआ करता था। प्रजा का जो मूल रूप है, वह आज वाला प्रजातंत्र नहीं है, जिसको लोग कभी-कभी प्रजातंत्र कह देते हैं। प्रजा की एक सबसे बड़ी विशेषता है कि, प्रजा जो है वह आत्मनिर्भर होती है। वह किसी सरकार की नौकरी के चक्कर में नहीं होती, किसी सरकार से उसको कुछ नहीं चाहिए। जब वह आत्मनिर्भर होगी, तो जैसे अभी कुछ लोग गाँव से जुड़े होंगे, तो धोबी, नाई, कारपेंटर, कुम्हार, ये सारे लोग अभी भी नौकरी नहीं करते हैं, और ये अपने जीवन को स्वयं पालते हैं। उस समय राम के राज्य में किसी को नौकरी नहीं करनी पड़ती थी। सब लोग अपनी, जो भी उनके सृजनात्मक भाव थे, विचार थे, कुशलता थी, उन्हीं के आधार पर जीते थे। इसलिए वे पूरी तरह से स्वतंत्र थे, और राम इस बात को मानते थे कि, अगर स्वतंत्र व्यक्ति कुछ कहता है, तो उसे हमको मानना पड़ेगा।
राम की अपनी बात नहीं थी, बल्कि वो इस प्रणाली या व्यवस्था के लिए पूरी तरह से कटिबद्ध थे। सीता जी भी कटिबद्ध थीं, क्योंकि दोनों का राज्याभिषेक हुआ था। धोबी आता है, तो धोबी प्रजा में आता है, और जो भी कहते हैं, जो भी ऐसी बातें होती हैं, सीता जी स्वयं इसका निर्णय लेकर वह जाती हैं जंगल में। अब लोग बोलेंगे कि, कैसे ये निर्णय लेकर जाएँगी जंगल में?
आज के युग में अगर आधुनिकता देखनी है, तो अगर मियाँ बीवी में कोई बातचीत हो जाती है, तो पहले तो माताजी के यहाँ फोन जाता है, मायके में, भाई को बुलाओ, बाप को बुलाओ इनको समझाएँ, नहीं तो पुलिस को बुलाओ। लोग कहेंगे कि, उस समय पुलिस नहीं थी, गुरु तो थे, गुरु के यहाँ जा सकतीं थीं। लेकिन वह गईं कहाँ? जंगल में। उनका बाप झोपड़ी में रहने वाला तो था नहीं। मान लीजिए नहीं बुलातीं, तो राजा था उनका बाप, मायके चली जातीं। लेकिन क्यों नहीं गईं? इससे लगता है कि उनका निर्णय उनका था। अगर उनको निकाला जाता तो ऐसा वो नहीं कर सकतीं थीं। अगर उनका निर्णय उनका था, तो उनके व्यवहार को देखना पड़ेगा। उन्होंने राम के प्रति नकारात्मक एक भी शब्द न तो कभी खुद कहा, न अपने बच्चों से कहने दिया? और अन्त में उनकी मुलाकात राम से होती है, तब राम की बात का विद्रोही भाव से उल्लंघन करते हुए धरती में समाती हैं, ये कह के समाती हैं कि, आगे कभी भी मेरा जन्म होगा, तो मैं आपको ही पति-रूप में पाना चाहती हूँ। आजकल के ज़माने में जहाँ डिवोर्स बहुत बढ़ता जा रहा है, ऐसी नारी जो इतनी यातनाओं के बाद भी अपने कुल की परम्पराओं के आधार पर अपने जीवन को कठोरता से भोगते हुए, अपने बच्चों का पालन करते हुए, मान मर्यादा से रहते हुए और इस संसार से जाती है, वह नारी रामराज्य लाने में, रामराज्य प्रकट करने में सहायक सिद्ध हो सकती है।
इसलिए,
‘रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाइ पर वचन न जाई।‘
जैसी कुलरीति को सीता ने पूरी तरह संजोकर अपने आचरण में, अपने चरित्र में प्रकट किया। इस प्रकार सीता का वैदेही नहीं, बल्कि ये विद्रोही भाव ही रामायण की जड़, आधार, एवं सम्पूरण है, और रामायण को सीतायण कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालाँकि इस बात के लिए सीता की सम्मति संभवतः नहीं होगी।
आज की महिलाएँ, आज की बहू, बेटियाँ, बहनें, माताएँ व् पत्नियां अगर क्रान्तिकारी नारीवादी बनना चाहती हैं, तो उनके सन्मुख दो सशक्त भारतीय विकल्प मौजूद हैं, एक सू-नारीवाद (सू -फेमिनिज्म), जिसमे शूर्पणखा वाला क्रान्तिकारी, बलिष्ठ, स्वच्छंद, और बराबरी का भाव-विचार व आचरण हैं, तथा दूसरा सी-नारीवाद (सी-फेमिनिज्म), जिसमें सीता वाला विद्रोही, कर्तव्यनिष्ठ, परम्परावादी, व धार्मिक भाव-विचार व आचरण हैं।
– Prof. Bal Ram Singh, Director, Institute of Advanced Sciences, Dartmouth, MA, USA and Fellow, Jawaharlal Nehru Institute of Advanced Study, JNU, Delhi, India