भारतीय इतिहास में समय-समय पर विभिन्न युगों में अनेकों क्रान्तियां हुई हैं। जिनका नेतृत्व स्वयं ईश्वर ने अपनी विशिष्ट विभूतियों (अवतारों) के रूप में किया है। इस आलेख में ऐसी एक भगवदंशभगवान् परशुराम की ऐतिहासिक चर्चा की जा रही है, जो कि वर्तमान काल में अतिप्रासङ्गिक एवं प्रेरणास्पद हैं।
सत्युग के आरम्भ में द्विजातियों में श्रेष्ठ जाति ब्राह्मणों की मानी जाती थी। नित्य यज्ञ-यागादिकर्म करना-कराना, षडङ्गवेदाध्ययन करना-कराना, दान लेना-देना यही इनके मुख्यकर्म थे। इसमें श्रुति स्वयं ही प्रमाण है – ‘विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि।’ अतः ‘ब्राह्मणाय निष्कारणो हिषडङ्गो वेदोऽध्येतव्यः’ की परम्परा ने ब्राह्मणों को अमित-अगणित-अमोघ तेजस्विता के कारण ‘भूसुर’ की संज्ञा से विभूषित किया था। इन भूसुरों के अमोघ ब्रह्मतेज के सामने परमशक्तिशाली सम्राट् तो क्या देवेन्द्र तक की समस्त शक्तियाँ कुण्ठित हो जाती थीं। उनकी अमित तेजस्विता, ज्ञान-विज्ञान के बल के सामने वायु जैसी सर्वव्यापिनी और सूक्ष्म शक्ति, जल जैसा सर्वव्यापी सरल तत्त्व, विद्युत् जैसा चञ्चल और सर्वसंहारकतेज, सभी अवनत एवं आज्ञानुवर्ती थे।
भगवान् परशुराम के अवतरण का कारण –
काल सबको सर्वदा एक सी अवस्था में नहीं रखता है। कहा है- ‘कालः क्रमेण जगतः परिवर्तनमानः।‘ उत्थान के बाद पतन तथा पतन के बाद उत्थान, संसार के सभी पार्थिव पदार्थों की यही गति है।’ सत्युग के आरम्भ एवं मध्य में जिस ब्रह्मण्य धर्म का अमित तेजोमय भास्कर नभोमण्डित था, कर्त्तव्य एवं दायित्व में शिथिलता के कारण वह युग के समाप्त होते-होते अस्तङ्गमित होने लगा। परलोक-प्राप्ति या मोक्ष-प्राप्ति की आशा में तल्लीन, समाज से विरत उदासीन ब्राह्मणों की सांसारिक दायित्वों (अर्थात् शास्त्रोचित कर्त्तव्याकर्त्तव्य-व्यवस्था का उपदेश, मन्त्रणा इत्यादि) के प्रति विमुखता से ऐश्वर्य सम्पन्नक्षत्रियों के मन में सर्वश्रेष्ठ बनने की कुहेलिका कामना बलवती हो गई। सद्बुद्धि, शान्ति, आत्मबल इत्यादि को तुच्छ समझने वाले राजाओं को देव-पूजा एवं ब्राह्मण-पूजा आदि से अश्रद्धा हो गई। फलतः दत्तात्रेय के वर-प्रभाव से अजेय बल सम्पन्नएवं अप्रतिम ऐश्वर्यशाली हैहयवंश-कुलोत्पन्न माहिष्मतीपुरी के महाराज कार्त्तवीर्य अर्जुन के नेतृत्त्व में पथभ्रष्ट क्षत्रियों ने ब्राह्मणों का न सिर्फ अपमान किया प्रत्युत उन पर भीषण अत्याचार किए। पददलित-दीन ब्राह्मणों एवं अपमानित देवगणों द्वारा कार्त्तवीर्य के मान-भञ्जन पर विचारार्थ अमरावती नगरी में प्रजापति ब्रह्मा की अध्यक्षता में षाण्मासिक गोष्ठी का आयोजन किया गया। गोष्ठी में हुई मन्त्रणा के आधार पर सभी ने दुर्दान्त राजाओं के पाप-भार से दुःखी वसुन्धरा को भगवान् विष्णु के समीप गोलोकधाम भेजा। भगवान् विष्णु ने वसुन्धरा की करुण प्रार्थना को सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए कहा कि – ‘‘मैं शीघ्र ही तुम्हारा एवं देव-द्विजगणों का अभीष्ट साधन करूँगा। महर्षि ऋचीक की घोर तपस्या से प्रसन्नहोकर मैं उन्हें एक वर दे चुका हूँ जिसकी पूर्ति हेतु मेरी एक विभूति ‘परशुराम’ इस नाम से उनके पुत्र जमदग्नि के घर में जन्म लेगी। उसके जीवन का व्रत अन्याय व अत्याचारों का समूल नाश कर ब्रह्मण्य-सनातन धर्म की पुनः प्रतिष्ठा करना होगा। अतः तुम प्रसन्नहोकर जाओ एवं दीनों, ब्राह्मणों व देवगणों को आश्वस्त कर दो।’’
भगवान् परशुराम का अवतरण –
उक्त घटना के प्रायः बारह वर्ष बाद, भगवान विष्णु ने सरस्वती आश्रम में महर्षि ऋचीक के पुत्र महर्षि जमदग्नि के घर, सर्वगुण-सम्पन्नसूर्यप्रभाप्रदीपित, परशुचिह्नयुक्त परशुराम रूप में सनातन-धर्म की पुनः प्रतिष्ठापनार्थ माता रेणुका के गर्भ से अवतार लिया। स्कन्द एवं भविष्यपुराण के अनुसार भगवान् परशुराम का जन्म वैशाख मास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर (प्रायः प्रदोष काल) में, हुआ। उस समय 6 ग्रह उच्च के थे। जयदेव कहते हैं –
क्षत्रियरुधिरमये जगदपगतपापं स्नपयसि पयसि शमितभवतापम्।
केशव धृतभृगुपतिरूपम्। जय जगदीश हरे।। (गीतगोविन्द)
भगवान् विष्णु ने परशुराम अंश के रूप में उस भृगु कुल में अवतार लिया जिस भृगु के पाद-प्रहार को अपने वक्षःस्थल पर सहा। इसी भृगुवंश में उत्पन्न होने के कारण वे भार्गव’ कहलाए। इनके चार भाई विश्वावसु, वसु, सुषेण एवं रूमोद्वान् इनसे क्रमशः आयु में बड़े थे। कालान्तर में युवा परशुराम को साक्षात् भगवान् शिव से धनुर्विद्या के साथ-साथ अष्टधातु-निर्मित भीषण, अमोघ एवं सर्वजयी परशु प्राप्त हुआ।
पितृ-मातृभक्त परशुराम –
एक बार पितृभक्त परशुरामजी ने अपने पिता जमदग्नि से आज्ञा पाकर बिना एक क्षण गंवाए अपनी माता रेणुका का मस्तक धड़ से अलग कर डाला। अपने पुत्र की पितृ-भक्ति से प्रसन्नजमदग्नि ने मातृ-शोक से सन्तप्त परशुराम की विनती पर पुनः उनकी माता को जीवित कर दिया।
कार्त्तवीर्य का वध एवं दुष्ट राजाओं का संहार –
सोलह दिन व्यापी निर्जल उपवास के बाद द्वादशी के व्रत की पारणा की शान्ति के लिए महर्षि जमदग्नि अतिथि-सत्कार में तत्पर हुए। अतिथि के रूप में आश्रम में ससैन्य उपस्थित महाराज कार्तवीर्य अर्जुन का दो दिनों तक, अपने तपोबल से प्राप्त ‘नन्दा’ नामक कामधेनु की सहायता व योगबल के द्वारा अनेकों दुर्लभ, रमणीय वस्तुओं व सुस्वादु भोजन से, महर्षि ने यथोचित् सत्कार किया। दो दिन पश्चात् गमन-काल में अनुकूल अवसर देखकर महाराज कार्तवीर्य अर्जुन उनके सामने उपस्थित हुए तथा महर्षि जमदग्नि के आश्रम में स्थित ‘नन्दा’ नामक कामधेनु को लेने की प्रार्थना की। किन्तु महर्षि द्वारा विनम्रतापूर्वक मना करने पर, राजा ने सक्रोध उन्हें अपमानित करके मृत्युदण्ड तक देने का निश्चय किया। फलतः अर्जुन के पुत्रों ने महर्षि जमदग्नि का वध कर दिया। इस अमानुषिक दुष्कृत्य ने परशुराम को विह्वल कर दिया। परशुराम की क्रोध रूपी दावाग्नि ने उनको आततायी राजाओं के संहारक साक्षात् यमराज के रूप में परिणत कर दिया। उन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष के अन्यायी एवं पथभ्रष्ट राजाओं का समूलनाश करके सनातन धर्म प्रतिष्ठित करने का प्रण कर लिया।
धर्म की स्थापना हेतु परशुराम का चतुर्दिक विजय अभियान –
परशुराम ने भारत के दक्षिण प्रान्त से अपना अभियान प्रारम्भ किया तथा सर्वप्रथम श्वेतद्वीप के राजा श्वेतकेतु को परास्त कर वहाँ सनातन-धर्म की स्थापना की। तत्पश्चात् दक्षिणेश्वर महाराज वृषकेतु को परास्त करने के बाद 12 दिन के युद्ध के अनन्तर पश्चिम की ओर पारण प्रदेश पर भी विजय हासिल की। दक्षिण के अवशिष्ट राज्यों ने भयवशात् वैदिक-धर्म की पुनः प्रतिष्ठा स्वीकार कर ली। पारण से आगे राजा जीमूतवाहन के प्रणवप्रस्थ नामक नगर पर अधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद परशुराम ने भारत के पूर्वराज्यों बङ्ग, उपबङ्ग, कलिङ्गऔर स्वमन्त्र में आततायी राजाओं का नाश करके सनातन धर्म प्रतिष्ठापित किया।
निःक्षत्रियामकृतगां च त्रिसप्तकृत्वो रामस्तु हैहयकुलोऽप्ययभार्गवाग्निः।। (भागवत्, 11/4/21)
इस प्रकार सम्पूर्ण भारतवर्ष में सनातन धर्म की पुनः स्थापना के उपरान्त भगवान् परशुराम महर्षि कश्यप को धरती देकर (संरक्षक नियुक्त कर) स्वयं महेन्द्र पर्वत पर रहने लगे।
-डॉ. श्यामदेवमिश्र, सहायकाचार्य (ज्योतिष), राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान, भोपाल परिसर, भोपाल, म.प्र.