श्री परशुराम आधारित अवतारवाद-विश्लेषण

-डॉ. श्यामदेवमिश्र

आज के सामाजिक अस्त-व्यस्तता के युग में क्रांतिकारी विचारों की आवश्यकता है। परशुराम के जीवन अवतार की वर्तमान में प्रासंगिगकता और अनुकरणीयता को प्रस्तुत आलेख में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

(Editor’s note)

अवतारवाद का औचित्य

परब्रह्म-तत्व को मन और बुद्धि से नहीं जाना जा सकता है अत:, उसके विषय में चिन्तन करने के लिए जितने भी उपाय शास्त्रों में वर्णित हैं उसमें ‘अवतारवाद’ सबसे उत्तम कहा जा सकता है क्योंकि जब निर्विशेष (अर्थात् गुण, आकृति आदि से रहित) ब्रह्म बुद्धि में आ ही नहीं सकता है तब उसकी उपासना कैसे सम्भव होगी? ऐसे में मनुष्य, प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले पदार्थों में परमेश्वर के लक्षण देखकर उन्हें (उन पदार्थों को) आलंबन (सहारा) मानकर ब्रह्मभाव से उसकी उपासना करता है। उसमें भी, चेतना में – विशेषकर मनुष्यरूप में,  ब्रह्मत्व का भाव रखना तथा उसकी उपासना करना अत्युपयोगी व सरल है क्योंकि उपासक मनुष्य का मन अपने सजातीय में स्वाभाविक रूप से लगने के कारण उससे ही प्रेम करने लगता है जिससे, चित्त स्थिर हो जाता है । यही ‘अवतारोपासना’ है ।

अवतार की अवधारणा

सर्वत्र स्थित, सदा प्रकाशित, शाश्वत, एकरूप शक्ति के अतिरिक्त कोई भी शक्ति नहीं है जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों में प्रवेश कर सके। वही चैतन्य शक्ति जब इन्द्रियग्राह्य होने के लिए स्थूल बनता है अर्थात् अपने उच्च स्वरूप से नीचे अवतरण कर स्थूल रूप धारण करता है, तब उसे ईश्वरीयशक्ति का अवतार होना कहते हैं। गीता के चतुर्थ अध्याय के छठे श्लोक “अजोऽपि सन्नव्ययात्मा ……सम्भवाम्यात्ममायया” में भगवान् स्वयम् अवतरण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मैं जन्मरहित, अविनाशी तथा सभी भूतों में रहते हुए भी अपने अनन्त-रूप-धारण-सामर्थ्य-सम्पन्नरूपी स्वभाव-धर्म-शक्ति का उपयोग करके अपनी माया से स्थूल जगत् में अवतार धारण करता हूँ।

दश अवतार

वराहपुराण के अनुसार दश अवतार क्रमशः इस प्रकार हैं –

  1. मत्स्य: कूर्मो 3. वराहश्च 4. नृसिंहो 5. वामनस्तथा
  2. रामो 7. रामश्च 8. कृष्णश्च 9. बौद्ध: 10. कल्की तथैव च ।।

इसमें छठे अवतार राम अर्थात् परशुराम थे। इसके अतिरिक्त पुरुषावतार, गुणावतार, मन्वन्तरावतार इत्यादि प्रसिद्ध हैं ।

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(Source of image: http://vishnudashavatars.blogspot.in/2010/04/vishnu-dashavatar.html)

अवतारों के प्रकार

यद्यपि सभी अवतार परिपूर्ण हैं, किसी में तत्त्वत: न्यूनाधिक्य नहीं है; तथापि शक्ति के प्रकटन की न्यूनता-अधिकता के आधार पर अवतारों के चार प्रकार माने गए हैं –

1. आवेश, २. प्राभव, ३. वैभव और ४. परावस्थ

परशुराम, कल्की आदि आवेशावतार हैं। कूर्म, मत्स्य, वराह आदि वैभवावतार तथा श्रीनृसिंह, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण परावस्थवतार या पूर्णावतार हैं ।

अवतार का प्रयोजन?

अवतरण हेतु आवश्यक परिस्थिति या उचित काल को भगवान ने स्वयं ही गीता में बताया है –

“यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्याहम् ।।”

(गीता 4.7)

अर्थात् जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उत्थान होता है तब मैं अवतार लेता हूँ।

अवतार का प्रयोजन आगे स्पष्ट करते हैं –

“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।”

(गीता 4.8)

अर्थात् सज्जनों की रक्षा करने के लिए, दुष्टों का संहार करने के लिए तथा धर्म की पुन: प्रतिष्ठा करने के लिए मैं हर युग में अवतार लेता हूँ।

विचार किया जाए तो किसी व्यक्ति, वस्तु या घटना की प्रासङ्गिकता अथवा समसामयिकता का निर्धारण एवं मूल्याङ्कन, काल तथा प्रयोजन के अधीन (सापेक्ष्य) है। ऊपर के भगवदुक्त श्लोकों से स्पष्ट है कि अपने अवतरण हेतु उचित काल तथा प्रयोजन-विशेष का निर्धारण जगत-नियंता (ईश्वर) के ही हाथ में है। अत:, सामान्य रूप से विचार करने पर सर्वाधिक-सर्वथा-उचित काल में समसामयिक व प्रासङ्गिक उद्देश्य से युक्त भगवत-अवतरणों की तत्तत्कालीन प्रासङ्गिकता स्वत: स्पष्ट हो जाती है । चूंकि, काल-क्रम से अधर्म की वृद्धि व धर्म की हानि युग-धर्म है अत: प्रत्येक युग में अवतारों की प्रासंगिकता भी उतनी ही रहेगी । किसी एक अवतार-विशेष को, चाहे वह परशुराम हों या अन्य कोई, इससे अलग  रखकर विचार नहीं किया जा सकता है। भगवदवतरणों के सम्बन्ध में (प्रासंगिकता, समसामयिकता और महत्त्व पर) इससे अधिक कहना पिष्टपेषण (चबाये हुए को चबाना) ही होगा क्यूंकि, उस विषय में भगवान स्वयं ही वचनबद्ध हैं-

“यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्याहम्।।

(और उनसे अधिक काल और कालानुरूप प्रासङ्गिकता को कौन जान सकता है!!)

वैसे विचार किया जाए तो, प्रत्येक अवतार एक नायक ही तो है । इन अलौकिक नायकों (अवतारों) से इतर, समाज को नई दिशा दिखाने वाले स्वामी विवेकानन्द सदृश विशिष्ट-शक्ति-सम्पन्न लौकिक नायकों की प्रासंगिकता तो हर युग में रहेगी ही और फिर वर्तमान में तो, युग-धर्म के कारण, नितान्त अशक्त और नाना प्रकार के जञ्जालों में फंसे हुए मानवों के लिए, ऐसे नायकों का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र ही प्रेरणादायक और अनुकरणीय होने के कारण और भी प्रासंगिक है। ऐसे में न केवल प्रभु के सभी रूप (अवतार) प्रासङ्गिक नज़र आते हैं अपितु इन अवतारों का स्मरण, अनुकीर्तन आदि ही समस्त दुखों का नाश करने वाला बन जाता है । कहा ही है –

“यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात्। विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे।।”

जहां तक प्रश्न अवतारों के वर्ग (जाति) का है (विशेषकर, परशुराम अवतार में), मेरी समझ से अवतारों को जातिगत-दृष्टि से देखना किसी भी व्यक्ति के लिए (चाहे वह इतर अवतारों की अपेक्षा, अवतार-विशेष में विशिष्ट प्रीति रखने वाला हो या उसके विरुद्ध विचार या आचरण वाला हो) कतई न्यायपूर्ण या तर्कपूर्ण नहीं है। यह तो न सिर्फ उल्टे भगवान् को ही बांटने जैसा हो गया बल्कि उसकी अवतार-व्यवस्था के मूल पर ही आघात करने जैसा है क्यूंकि, जिसका अवतरण ही समाज को धर्मयुक्त व संगठित करना तथा समाज का कल्याण करना है उसको (विरोधी विचार रखने वालों के द्वारा) धर्म-विशेष, जाति-विशेष का प्रतिनिधिभूत मानकर अवतारविशेष के प्रति अरुचि या अश्रद्धा का भाव रखना अथवा कुछ दिग्भ्रमित लोगों के द्वारा, उस अवतार-विशेष को केवल अपने ही वर्ग का गौरव बताना नितान्त भ्रमोत्पादक व कलहोत्पादक है ।

परशुराम जी के विषय में एक अन्य बड़ा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब वह अवताररूप हैं तब अन्य अवतारों की भांति उनका पुनर्गमन क्यूँ नहीं हुआ और वे चिरजीवी कैसे रह गये? वस्तुत: वैष्णव-परम्परा में परिगणित दश अवतारों में परशुराम आवेशावतार माने गए हैं अर्थात्, भगवदंश का आवेश उनमें है इसीलिये वे अंशावतार कहे गए हैं। आवश्यकता पड़ने पर, भगवदंश से आविष्ट परशुराम जी ने अपने अवतरण का प्रयोजन सार्थक किया और भविष्य में भी तादृश परिस्थिति उत्पन्न होने पर परब्रह्म (वैष्णवागम में प्रभु विष्णु) की प्रेरणा से वह पुन: अपने अवतरण को सार्थक कर सकें एतदर्थ ही वे चिरजीवी भी हैं। कहने का आशय यह है कि सामान्यत: वे मनुष्य-रूप होने के कारण चिरजीवी हैं किन्तु, परिस्थिति-विशेष में उनका, अन्तस्थ भगवदंशरूप आवेशावतार लोक-कल्याणार्थ प्रकटित होता है ।

 उपसंहार

सुनीति एवं सद्धर्म ही उन्नति का सर्वोत्तम मार्ग है। अतः, जो अधर्म एवं कुरीतियों का हटाकर इनकी प्रतिष्ठा करते हैं, वो महापुरुष कहलाते हैं। भगवान् परशुराम ने तत्कालीन समाज में व्याप्त अनैतिकता एवं राक्षसी प्रवृत्तियों का समूलोच्छेद करके सनातन धर्म की स्थापना की। निश्चय ही भगवदंशावतार श्री परशुराम का इतिवृत्त एवं जीवन-चरित्र का सतत अनुशीलन न केवल हमें अपने देश के गौरवशाली इतिहास का दिग्दर्शन कराता है अपितु अपनी संस्कृति व सभ्यता के रक्षार्थ सतत प्रेरणा का भी संचार करता है।

-डॉ. श्यामदेवमिश्र, सहायकाचार्य (ज्योतिष), राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान, भोपाल परिसर,भोपाल, म.प्र.