ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!!
“तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ, वंदनीय तीनों लोकों पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्युलोक में विचरण करने वाले भगवान सूर्य हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करें”
यह वैदिक मूलमंत्र समस्त जीवधारियों का आलम्बन है| इन महिमामंडित, मण्डलाकार, ज्योतिस्वरूप सूर्यदेव को बारम्बार नमस्कार हों| उनके इस सृष्टि और सृजन के प्रति, सभी के जीवनदान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रगट करने के लिए उत्तर-भारत में सूर्योपासना के लिए किया जाने वाला छठव्रत, बड़ी ही श्रध्दा से प्रत्येक वर्ष कार्तिक एवं चैत्र मास में संपन्न किया जाता हैं| अन्य प्रदेशों में भी सूर्य उपासना के विभिन्न प्रकार हैं|
समस्त वनस्पतियों फल-फूल-ईंख-अन्न-मिष्ठान से भगवान भास्कर को संध्या समय तथा प्रातःकाल सूर्योदय के समय श्रध्दापूर्वक अर्घ्य प्रदान किया जाता हैं| अस्त हों रहे अथवा उदय हों रहे सूर्य की आराधना निरन्तर चल रहे कालक्रम-समय को ही धोतित करता हैं| यह आराधना आडम्बर रहित जनसाधारण का महापर्व है| श्रध्दापूर्ण श्रद्धालु-जन इस प्रकार अर्घ्य प्रदान कर कृतज्ञता प्रकट करते हैं|
एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजो राशे: जगत्पते !
अनुकम्पय मां देवो गृहाणार्घ्यं दिवाकर: !!
इस छठ पर्व में स्वयं सुर्योत्पन (जैसा की किवदंती है) शाकद्वीपीय ‘मग’ ब्राह्मणों का विशिष्ट महत्त्व है| ये वही समुदाय है, जिनके पूर्वजों को भगवान श्रीकृष्ण अपने पुत्र साम्ब के उपचार के लिए शाकद्वीप से भारत लेकर आये थे, और कालांतर में ये ब्राहमण समुदाय वैद्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए| कहने का तात्पर्य है की सूर्य के किरणों की महता प्राचीनकाल से ही रोगनिवारक के रूप में स्थापित है|
हमारी संस्कृति की अनुपम ज्ञानप्रद श्रृंखला जो पूर्वकाल में शिष्यों तथा ऋषि पुत्रों की श्रवण और मनन परम्परा से आगे बढ़ी थी| श्रवण और मनन में श्लोक केवल शाब्दिक अर्थ ही नहीं बल्कि उसके उच्चारण और अनुकम्पन से किसी खास अर्थ या प्रयोजन निमित्त होता है| आर्य ऋषियों की श्रवण-मनन वाली ज्ञान परम्परा के धूमिल पड़ने के बाद, आधुनिक युग में यह श्रुश्रुत परम्परा क्रमशः लेखन एवं दृश्यज्ञान में परिवर्तित हो गयी| परन्तु नई पीढ़ी तकनीक की अंधी दौड़ में ज्ञान के आधुनिक प्रकल्पों में अग्रसरित है, और शाब्दिक अर्थ से इतर प्रभावों से अनभिग्य होती जा रही है| शब्द ज्ञान से इतर की समझ के लिए किसी के पास समय नहीं| परन्तु इस समृद्ध ज्ञान वैभव के विरासत अगली पीढियों तक पहुचे, जिससे वे सार्थक जीवन जी सके, भौतिकता के दुष्परिणामों से बच सके और अध्यात्म की ओर मुड सके, और हमारी आर्य परम्परा की विरासत को जान सके, इसके लिए चित्रात्मक अभिव्यक्ति एक ससक्त माध्यम हो सकता है| इसीलिए यहाँ आदिदेव, प्रत्यक्ष प्रमाण स्वरुप भगवान सूर्य की उपासना को चित्र के माध्यम से अभिव्यक्ति दी गई है|
(Editor’s note – The author has painted this image. Her present work is themed at Sanskrit literature from where she picked up the myriad colors which make her painting style vibrant and classy. )
“सूर्य और सृष्टि” शीर्षक वाला यह चित्र सूर्य-वन्दना को स्पष्ट कर रहा है| आकाश में दर्शित तीन मंद्लाकृति भूलोक, अन्तरिक्षलोक, तथा द्युलोक को प्रकाशित करने वाले सूर्य की महिमा को प्रकट कर रहा है| परमात्मास्वरुप सूर्यदेव पंच आदि तत्वो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश से सृष्टि का निर्माण करते हैं| इस सृष्टि के निर्माण में प्रकृति देवी के सहयोग से, छः ऋतुओं की शक्ति से नित-नूतन समस्त जड़चेतन जगत की सरंचना करते हैं|
चित्र में सात-स्त्रियों की जो आकृति है, उसमे प्रकृति देवी सहित छह ऋतुओं के व्यहार एवं प्रभाव को दर्शाया गया है| उनके बस्त्रों का रंग उस ऋतु विशेष की प्रकृति एवं कार्य का परिचायक है| चित्र में दायी ओर की प्रथम स्त्री वसंत ऋतु की परिचायक है, जिसका पीला वासंती वस्त्र पृथ्वी को पुष्पित एवं पल्लवित कर संसार को सृजन शक्ति के आनंद से भर देता है, तभी तो बसंत को ‘ऋतुराज’ भी कहा जाता है| दूसरी स्त्री ग्रीष्म ऋतु का प्रतीक है, जिसका लाल वस्त्र मौसम के परिताप को प्रकट करता है| ग्रीष्म ऋतु में पृथ्वी गर्म होकर सृजन की ओर प्रवृत होती है| तीसरी स्त्री स्वयं प्रकृति देवी है, जो सभी ऋतुओ को स्वयं के कार्य निष्पादन को प्रेरित करती है| चौथे स्थान पर हरे वस्त्र में हरियाली की प्रतीक वर्षा ऋतु है, जो ग्रीष्म के ताप से संतप्त प्रकृति और जनजीवन में सृजन शक्ति भर कर जीवन का श्रृंगार करती है| तदन्तर हलके नील वर्ण वाली पांचवी आकृति शरद ऋतु की है, जो नव सृजित वस्तुओं में जीवन का संचार कर संरक्षित रखती है| उसके बाद छठी और सातवी आकृति हेमंत और शिशिर की है, जो वस्तुओं और जीवन को संपुष्टि प्रदान कर परिपक्वता देती है, उसमें जीवनदायी रस का संचार करती हैं| इस प्रकार छह ऋतुएँ समस्त चराचर जगत में सृजन-स्थिति एवं परिपक्वता से सृष्टि का क्रमिक संपादन करती हैं|
इस प्रकार सूर्यदेव ही अन्न-जल, वन-उपवन, पर्वत-झरने, जीव-जंतु-पक्षीगण, कीट-पतंग, मानवादि का निर्माण कर संपोषण करते हैं| इस चित्र में आदिपुरुष मनु और आदिस्त्री शतरूपा (हिन्दू मान्यतानुसार) सूर्य का वंदन करते हुए दिख रहे हैं| भारतीय आर्य परम्परा में ‘यज्ञ’ को विशेष महत्त्व मिला है| हवन कुण्ड से उठती अग्नि की लपटें आदि पंचतत्वों में से एक अग्नि तत्व के निर्देशित कर रही है| अग्नि जल की भी सृजक है और जल जीव-सृजन की प्रथम कड़ी है| इस प्रकार सूर्य ही सृष्टी के केंद्र में विराजमान हैं, ज्ञान-विज्ञान की धुरी हैं|
सूर्य की दिव्य शक्तियों की जानकारी हमें बहुत अल्प हैं| हमारी आर्य ऋषि परम्परा से प्राप्त ज्ञान का मंतव्य है कि ब्रह्मांड में अनेकानेक सूर्य और उनका सौरमंडल हैं|अनेकानेक ग्रह-नक्षत्र-निहारिका-उल्कायें, तारागण और आकाशगंगाए हैं, कुछ अज्ञात शून्य भी हैं, जो एक दिव्यप्रकाश स्वरुप से संचालित एवं नियंत्रित हैं| गणित और विज्ञान का “शुन्य” घटक भी संभवतः सुर्याकृति पर ही निर्धारित हैं| समस्त गणना विज्ञान शुन्य से प्रारम्भ होकर असीमित शून्यों तक के माप का सफ़र तय करती हैं, जिसकी अवधारणा पूर्ण रूप से भारतीय है| खगोलीय दुरी की व्याख्या भी प्रकाश वर्ष में की जाती है| अतः सूर्य के बिना आधुनिक विज्ञान के परिकल्पना दुरूह है|
अतः हम परमात्मा की कल्पना प्रत्यक्ष प्रमाणस्वरुप भगवान सूर्य में कर सकते हैं| विश्व के अनेकानेक देशो में, विभिन्न धर्मों में किसी न किसी रूप में सूर्य उपासना का रूप मिलता है| मानव तथा अन्य जीवधारियों को सूर्य की दिव्य शक्तियों की प्रतीती होती है, उसी प्रकार से जिस प्रकार वायु तथा जल की जीवनधारण क्षमता का अनुभव होता है| इस प्रकार सूर्य की दैवीय शक्तियों को नकारना अपनी वास्तविकता को नकारने के सदृश्य है|
ज्ञान जीवन की सार्थकता और आनंद को संपुष्टी करता है, अततः ज्ञान की ही सर्वत्र पूजा होती है इसीलिए ज्ञान का अन्वेषण तथा अर्चना अनिवार्य है| सद्यः जन्मा बालक जीवनदायनी दुग्धाहार के लिए स्वतः ही दुग्धधारा को ढूंढता है| जन्मदात्री माँ के अस्तित्व-बोध से रहित वह उस व्यक्तित्व (माँ) से अगाध प्रेम और श्रध्दा से जुड़ जाता है, जीवन पर्यंत यही जुडाव ही पूजा अर्चना है| निष्कर्षतः शाश्वत शक्ति जो सृष्टि का सृजन करती है, उसके प्रति प्रेम और श्रध्दा, पूजा और समर्पण स्वाभाविक ही है|
वेदों में सूर्य की विभिन्न शक्तियों का ज्ञान, अन्तरिक्ष के रहस्य, अग्नि, जल-पिंडो इत्यादि की अन्तरिक्ष में उपस्थिति का ज्ञान और विज्ञान प्रतीकात्मक शैली में उपलब्ध है, उदहारणस्वरुप ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के सवितृ सूक्त 35 में हिरण्यस्तूप ऋषि के अनुसार इस कथन की पुष्टी हो रही है|
ति॒स्रो द्याव॑: सवि॒तुर्द्वा उ॒पस्थाँ॒ एका॑ य॒मस्य॒ भुव॑ने विरा॒षाट् ।
आ॒णिं न रथ्य॑म॒मृताधि॑ तस्थुरि॒ह ब्र॑वीतु॒ य उ॒ तच्चिके॑तत् ॥
सवितृ सूक्त ऋगवेद| मण्डल (1:35) मन्त्र 6
स्वर्ग से उपलक्षित प्रकाशमान लोक तीन हैं| उनमें से दो लोक सूर्य के समीप है अर्थात् दो लोक-भूलोक और द्युलोक सूर्य से प्रकाशित होते हैं| एक तीसरा लोक अन्तरिक्ष है जो यम के घर जाने वाले प्रेतों को सहन करता है अर्थात् मरने के बाद पुरुष अन्तरिक्ष के मार्ग से यम लोक को जाता है| जिस प्रकार रथ के अक्ष में डाली गई आणि (किल) से रथ अवस्थित रहता है, उसी प्रकार अमृत अर्थात चन्द्र, तारे आदि प्रकाशमान नक्षत्र अथवा जल उस सूर्य के समीप अवस्थित हो गये है, और इस प्रकार के सूर्य को जो मनुष्य जानता है, वही मनुष्य सूर्य की महिमा का वर्णन कर सकता है|
इस प्रकार वेदों उपनिषदों इत्यादि के मनन, अनुशीलन एवं वैज्ञानिक गवेषणा से अद्भुत खगोलीय तथ्यों की बृहद जानकारी को मानवोपयोगी बनाया जा सकता है| इन्हीं सब तथ्यों को चित्र के माध्यम से व्यक्त कर, युद्ध, अशांति और प्राकृतिक असंतुलन की विभीषिका को झेलती मानवता की कुछ त्राण मिल सके, इसका एक छोटा सा प्रयास किया गया है|
– प्रो. माला रानी गुरु, संस्कृत विभाग, राम कृष्ण महिला महाविद्यालय, गिरिडीह, झारखण्ड