वेदों के प्रकाश में अपने स्त्रीत्व को खोजें व सही अर्थों में स्वतंत्रता प्राप्त करें

– Mrs. Suvrata Vinod

[ Editor’s Note – शास्त्रार्थ की संवाद शैली का प्रयोग करते हुए लेखिका ने अपने विचारों को यहाँ रखा है।]

शंका – वेद है क्या?

समाधान – वेद एक नियत शब्दराशि है।

शंका  – फिर ये शब्द दूसरे शब्दों से विशेष क्यों? इतिहास के गर्त में न जाने कितनी संस्कृतियाँ, राष्ट्र, समाज, व्यक्ति आए गए।बहुत थोडों का स्मरण शेष रहता है।वह भी अंशों में।वेद भी तो किसी के द्वारा बनाये गये थे और अत एव नष्ट हो रहे है।

समाधान – क्या सब कुछ मनुष्यकृत होना जरुरी है?

शंका – अर्थात् नही।

समाधान – तो सब वाक्य मनुष्यकृत होना जरुरी है?

शंका – हाँ।

समाधान -क्या कोई मनुष्य बिना किसी का वाक्य सुने, वाक्योच्चारण करते देखा गया है?

शंका – नही।परंतु पुरा काल में ऐसा हुआ होगा।

समाधान – अदृष्टपूर्वकल्पना बिना हेतु के करना अंधश्रद्धा है।फिर देखो जीवित कोष से ही कोषांतर देख रहे हो, मान भी रहे हो। ऐसे ही गुरु के पूर्वोच्चारण से शिष्य का अनूच्चारण होता है ऐसा दीख रहा है। फिर सदा से ऐसा हो रहा है ऐसा मानने में क्या आपत्ति है। इन वेदवाक्यों को गुरुशिष्य परंपरा से अत्यंत पवित्रता व परिश्रम से हृदयाकाश में सुरक्षित रक्खा जाता है। वेद किसी लिखित-मुद्रित पुस्तक का नाम नही है।वेद गुरु के हृदय में निवास करते है। उपदेशद्वारा गुरु उसे शिष्य के हृदय में संक्रामित करते है। तब शिष्य भी गुरु होने योग्य हो जाता है। जो वेदों को हृदय में धारण करते है उन्हें हम वेदवित् कहते है। ऐसे व्यक्ति के लिए उसके अपने राग-द्वेष, likes-dislikes, अच्छा-बुरा एक तरफऔर दुसरी तरफ वेदों के विधि-निषेध दोनों ही सामने उपस्थित होते हैं। यही पर पुरुषार्थ का अवसर है जो हमे प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न भिन्न स्तर का ज्ञात होता है। जिसके पास पूर्ण स्वातंत्र्य हो उसे सिद्ध वा स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति। श्रीमद्भगवदगीता २.६४

(राग और द्वेष से वियुक्त होकर विषयों का इंद्रिय से ग्रहण करते हुए, उन इंद्रियों को अपने वश ऱखते हुए, न कि उनके दास बनकर, जो व्यक्ति शास्त्रविधि से प्रेरित होकर कार्य करता है वह प्रसन्नता को पाता है। )

यह स्वतंत्रता ही आर्य जीवन में श्रेष्ठता का मापदंड है। जिसमें यह स्वतंत्रता नहीवत् होती है उसे दूसरों के द्वारा नियंत्रित करना आवश्यक हो जाता है। एवं जो व्यक्ति राग-द्वेषों पर नियंत्रण रखते हुए विधि-निषेध का पालन कर सके वह दूसरों को अपने अधीन रखने की योग्यता पाता है। विचारशील व्यक्ति को स्वयं के राग-द्वेष तो विना उपदेश स्वयमेव ज्ञात होते है परंतु विधि-निषेध का ज्ञान तो मनुष्यमात्र को उपदेश से ही प्राप्त होता है।

शंका – उपदेश ग्रहण करने की योग्यता वा पात्रता क्या है?

समाधान – पवित्र वेदों के धारण के लिए योग्य शिष्य चाहिए। जैसे पानी भरने के लिए मजबुत साफ घडा चाहिए।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः। कठोपनिषद् २.२४

(दुश्चरित से जो बाज नही आया, जो शान्त और समाहित-चित्त नही है, वह केवल प्रज्ञान से उसे (परमात्मा को) नही पा सकता।) 

तदेतत् सत्यमृषिरंगिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते। मुण्डकोपनिषद् ३.२.११

(इस (औपनिषदिक आत्म) सत्य को ऋषि अंगिरा ने पहले कहा, इसे वह व्यक्ति न पढे जिसने व्रताचरण न कर लिया हो।) 

तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय प्रोवाच। मुण्डकोपनिषद् १.२.१३

(विद्वान् गुरु उसे उपदेश करे जो पास रहकर सेवा करता है, जिसका चित्त ठीक से शान्त है और जिसकी वासना भी शमन हो गई है।) 

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः। श्रीमद्भगवदगीता १५.११

(प्रयत्न करते हुए भी, जिसने अपने कर्तव्य को पुरा नही किया है, वैसे मूढ जन उसे (परमात्मा को) नही देखते।) 

शंका – कहाँ से आयेगा ऐसा शिष्य?

समाधान -परमेश्वर ने यह दायित्व स्त्री को दिया है।

मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद। बृहदारण्यकोपनिषद् ४.१.२-७

उत्तम माता, उत्तम पिता और श्रेष्ठ गुरु हो जिसका वही पुरुष उसे (परमात्मा को) जानता है। 

माता पतिव्रता यस्य पिता यस्य शुचिव्रतः। वाल्मीकि रामायण

माता जिसकी पतिव्रता हो और पिता जिसका शुचिव्रत अर्थात् वेदानुयायी है, उसी का मन ललचाता नही है। 

वह क्या है जो स्त्री के पास विशेष है? क्या में इस बहुमूल्य योग्यता को पहिचानती हूँ? क्या मैं इसका सही मूल्य कर पा रही हूँ? इसे संजोए रखने के लिए कुछ त्याग करने को भी तैयार हूँ?

शंका -आप किस बारे में बात कर रहे है हमें नहीं पता।

समाधान -यूरोप अमेरिका में 50 % स्त्रियाँ विवाह करना ही नहीं चाहती।क्या आजकल इंद्रिय-संयम ब्रह्मचर्य बहुत आसान हो गया है? 16 साल से कम उम्र में ही 90% से अधिक कन्याएं अपने कौमार्य को खो देती है।क्या हम भी इनके पिछे चल नहीं रहे? हमारी वेशभूषा तो कुछ ऐसा ही कह रही है।

शंका – क्या ऐसा होने से योग्य शिष्य पैदा नहीं हो सकेंगे? आजकल तो सब बहुत चमक-धमक वाला दीखता है।चारों ओर सुंदर-सुंदर स्त्री-पुरुष।कितना मनोहारी दृश्य है।कितने रंग! कितने स्वाद! कितनी सुगंध! इतनी विविधता प्रचुरता क्या पहले कभी थी? विज्ञान ने हर क्षेत्र मे नई ऊँचाईयों को छु लिया है। हमारे कई प्रश्नों के उत्तर दिये है। मानव आज अधिक सामर्थ्यवान् है।

समाधान – बिलकुल ठीक।मेरे अपने अनुभव से गत 30-40 वर्षों में हम बहुत बदल गये है। हमारे सही-गलत के मापदंड ही परिवर्तीत हो गये। कई बाते जो पूर्व में निंदात्मक थी वे आज प्रतिष्ठित है।जैसे मदिरापान, विवाहपूर्व संबंध, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी।सर्वत्र दोगला व्यवहार दीख रहा है।अंदर एक बाहर एक।हमारे मापदंड तो परिवर्तनशील है पर क्या प्रकृति के मापदंड भी बदलते है। और अगर प्रकृति के मापदंड नही बदलते तो क्या हम अब सिर्फ नाम के फलाना-फलाना रह गये। संज्ञामात्र! वस्तु बदल गयी लेबल पुराना। प्रश्न है, वेद को धारण करना, आत्मज्ञान प्राप्त करना, इसकी योग्यता पात्रता हमारे मापदंड बदलने मात्र से क्या बदल जायेंगी? क्या पोथी-पुस्तक पढ कर पंडित हो जा सकता है क्या? शुद्धचित्तता हमारी कल्पना का विषय नहीं अपितु नितांत वास्तविकता है जैसे की सुवर्ण की सुवर्णता। हमारे purity standard घटाने मात्र से क्या सुवर्ण अपने स्वरूप को पा सकता है? यदि नहीं, तो हमे याद रखना होगा की वेदों को धारण करने की योग्यता भी हमें यथार्थ में प्राप्त करनी पडेगी। ऐसे अधिकारी शिष्य को जन्म देना और उसका संगोपन करके पिता एवं अनन्तर आचार्य के अधीन करना यह स्त्री का अनन्य कर्तव्य है।

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(Source of image: https://www.menstrupedia.com/articles)

क्या हमे सोचना चाहिये कि नारी स्वतंत्रता हमे कौन सिखा रहा है।क्या हमारे सुसंस्कृत समाज को इसकी जरूरत थी।कहते है-

न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति । मनुस्मृति

स्त्री को यथोचित पुरुष को पुछे बिना कार्य नही करना चाहिए। 

यह अन्याय है। परंतु स्त्री ही नहीं धर्म किसी को भी स्वतंत्र मनमाना व्यवहार करने की अनुमति नही देता।

कः स्वतंत्रः यः ईश्वरतंत्रः।कः परतंत्रः यः इन्द्रियतंत्रः ।मधुसूदन सरस्वती

कौन स्वतंत्र है? जो ईश्वर के अधीन है। कौन परतंत्र है? जो इंद्रियों के अधीन है।

या तो आप साक्षात् वेद को धारण कर आत्मानुशासन में रहें या…। पर समाज में बहुत कम लोगों की यह काबिलियत होती है। इसलिए अधिकांश लोगों को उन आत्मानुशासित वेदपुरुष के मार्गदर्शन में रहने को कहा।जो कि निरहंकार भाव से देखने पर आसान विकल्प है सुखकर भी। If benefit is the same then why carry the burden of freedom.जो तो आत्मनियंत्रण से अथवा स्वेच्छा से किसी के नियंत्रण में रहकर प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए निर्दिष्ट दायित्वों का निर्वाह करता है वह उन दायित्वों से मुक्त होकर अधिकाधिक आनन्द अनुभव करता है।इसके विपरीत स्वेच्छाचारी अधिकाधिक बंधनों मे जकड़ता चला जाता है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।आत्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। श्रीमद्भगवदगीता 6.5-6

अपना उद्धार करे न की अपने आप को गिरा दे। स्वयं ही अपना बंधु है, जिसने अपने आप को जीत लिया। अन्य व्यक्ति जिसका इंद्रिय एवं चित्त स्वयं के वश में नही है, वह तो स्वयं ही स्वयं का शत्रु है। जितात्म-प्रसन्नचित्त व्यक्ति के परमात्मा सदैव पास ही है। 

आइये! वेदों के प्रकाश मे अपने स्त्रीत्व को खोजे व सही अर्थों मे स्वतंत्रता प्राप्त करे।

– Mrs. Suvrata Vinod, Anandavan Bhakta Samudaya, Institute of Advanced Studies in Veda and Science.

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