श्रीकृष्ण द्वारा कही श्रीमद्भगवद्गीता पर हर काल में बहुत बार लिखा गया और बोला गया है, फिर भी जब भी मैं इसे पढ़ता या सुनता हूँ तो मुझे हमेशा कुछ नया समझ में आता है।
गीता की शुरुआत युद्ध की भूमि में अर्जुन के युद्ध नहीं लड़ने के कारण हुई। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को समझाने के लिए ही गीता कही गयी थी| युद्ध को धर्मयुक्त मानने से लेकर उसकी सीमा का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण ने कर्म, कर्मफल, सन्यास व अन्य विषयों पर भी चर्चा की। कई लोग भ्रमवश गीता को या यूं कहें की श्रीकृष्ण को ही युद्ध का कारण मानते हैं, किन्तु गीता केवल सही और गलत की बात करती है, हिंसा या अहिंसा की नहीं। जैसे कोई देश जो आतंकवाद से पीड़ित है उसके लिए युद्ध करना या युद्ध के लिए तैयार रहना एकदम सही है और जो आतंकवाद के पोषक देश हैं उनके लिए गलत।

गीता एक आम इंसान की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी को भी दिशा देती है। पहले की तरह आज जीने के तरीके पूर्णरूप से बदल चुकें है किन्तु समस्या जो पांच हज़ार वर्ष पहले थी जब गीता कही गयी थी आज भी वही है जैसे अवसाद (डिप्रेशन), भय (फियर), कुंठा (फ़्रस्ट्रेशन), आत्मविश्वास की कमी (लैक ऑफ़ कॉन्फिडेंस) यह सारी भावनात्मक समस्याएँ जैसे की तैसे हैं।
आज सारे विश्व में भावनाओं का आवेश है हर कोई भावनात्मक दृष्टिकोण से ही सही-गलत का निर्णय कर रहा है और गीता इसके उलट बुद्धि के प्रयोग पर ही बल देती है। इसी कारण यह पूर्णरूप से मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजी) है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ||
(श्रीमद्भगवद्गीता २.४७)
यह श्रीमद्भगवद्गीता का सबसे महत्वपूर्ण श्लोक है। इसका भावार्थ यही है की संसार में हर एक घटना बहुत सारे कारणों पर निर्भर होती हैं, यह कारण कुछ एक तो स्वयं द्वारा निर्मित होते है लेकिन अधिकतर प्रकृति, देश अथवा विश्व के वातावरण और जनमानस के द्वारा निर्मित होते हैं, उन कारणों की पूर्णरूप से गणना करना असम्भव है किन्तु भावनावश हम अपने कर्म के निश्चित फल की कामना करते है (जो शायद ही कभी पूर्ण होती हो) और यहीं से समस्या शुरू होती है जिससे जीवन में चिन्ता, तनाव, कुंठा या अवसाद उत्पन्न होते हैं। जब कारण असंख्य और अनिश्चित हैं तो फल (जो भविष्य में है) निश्चित नहीं हो सकता इसलिए उसका विचार करना केवल अपनी ऊर्जा नष्ट करना है और कुछ नहीं। इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं की कर्म पर तेरा अधिकार है उसके फल पर नहीं इसलिए भविष्य की कल्पनाओं में न जीयें केवल वर्तमान में जीने के बारे में विचार करें। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है की जो वस्तु या सम्बन्ध वर्तमान में है उसके प्रति हम कृतज्ञ हो जाते हैं और उसके उपभोग से आनन्द प्राप्त करते हैं।
जीवन में धैर्य रखना वर्तमान में जीने का एक अनुपम उदाहरण है या यूँ कहें की वर्तमान में जीने से धैर्य रखने में बल मिलता है। जब आप वर्तमान में जीना सीख जाते हैं या केवल वर्तमान में जीने का हृदय से प्रयत्न करते हैं, तो आप पातें है की संसार में फैल रहे झूठे प्रलोभन और आश्वासन से आप मुक्त हो गए हैं और स्वयं का जीवन केवल स्वयं की जवाबदारी पर जीने लग जाते हैं, जिससे बिना किसी कारण ना तो किसी से प्रभावित होते हैं और ना तो कोई सहारा खोजते हैं। इन सबका लाभ यह होगा की आपका स्वयं पर विश्वास गहरा होता जाएगा।
वर्तमान में जीना एक कला है और इस कला को पाने के लिए अभ्यास बहुत जरुरी है। प्रतिदिन निरंतर वर्तमान में जीने का चिंतन और जो वस्तु आप के पास है या जो भी वर्तमान में परिस्थिति है उसका सर्वोत्तम उपयोग करके ही आप यह कला में निपुण हो सकते हैं और अपनी मानसिकता पर विजय पाकर सकारात्मक दृष्टिकोण रख सकते हैं।
यही कारण है की सम्पूर्ण गीता के सात सौ श्लोकों में से केवल एक श्लोक में ही मनोविज्ञान की इतनी गहरी बात श्रीकृष्ण ने कही है, जो इसे मनोविज्ञान की एक महानतम रचना बनाता है। गीता एक धर्म की पुस्तक नहीं है (यहाँ धर्म अर्थात रिलिजन या पंथ से है) बल्कि सम्पूर्ण मानव-जाति के लिए रची गयी है। जिस समय पर श्रीकृष्ण ने गीता कही थी उस समय आज की तरह मानव-जाति रिलिजन या पंथ में बटीं हुई नहीं थी बल्कि सम्पूर्ण मानव-जाति के सामाजिक व्यवहार को वैदिक दृष्टि से उपयुक्त या अनुपयुक्त ठहराया जाता था।
संसार में पहले ही सब लिखा और कहा जा चुका है लाभ तो केवल उस ज्ञान का अनुसरण कर उसके मार्ग पर चलने से होगा। अत: वैदिक मीमांसा को जानने और मानने वालों का यह कर्त्तव्य है की संसार में फैले मनोविज्ञान-विषयक इस अंधकार को दूर करने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान को जन-जन तक पहुंचायें।
– Mr.Vikram Bhatia, Entrepreneur, Indore