गुरुब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: |
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||
’उस गुरु को प्रणाम है जो ब्रह्मा है, जो विष्णु है और जो महेश्वर का रूप है। साक्षात् परमब्रह्म गुरु ही है।’ इसी तरह एक हिंदी दोहे में कहा गया है कि-
गुरु गोविंद दोनों खड़े काके लागू पांव ।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताए ॥
‘यदि गुरु और गोविन्द दोनो खडे हों तो किसके पैर छुएं ? मैं तो गुरु की बलिहारी जाऊंगा जिन्होंने गोविन्द के बारे में बताया।’

वास्तव में गुरु ब्रह्म के समान हैं; कुछ माने में उससे भी बड़े हैं क्योंकि ज्ञान का रास्ता गुरु ही बताते हैं। वेद में तो साफ-साफ निर्देश है- मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव । ’माता, पिता और आचार्य का सम्मान करने वाले बनो’। संस्कृत के एक श्लोक में कहा गया है -’जो ज्ञान की शलाका से अज्ञान के अंधकार को दूर कर आंखों को खोल देता है, ऐसी श्री गुरु को प्रणाम है।’
हिंदू कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक मास के अंतिम दिन पूर्णिमा की तिथि होती है इसे ही पूर्णमासी भी कहते हैं। यह पूर्णता की प्रतीक है। देखने की बात है कि लगभग सभी माह की पूर्णिमाएं किसी विशेष नाम से भी जानी जाती है -जैसे चैत्र मास की पूर्णिमा हनुमान जयंती, वैसाख मास की पूर्णिमा गंगा स्नान, श्रावण मास की पूर्णिमा रक्षाबंधन या श्रावणी, आश्विन मास की पूर्णिमा शरद पूर्णिमा । आषाढ़ मास की पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा या व्यासपूर्णिमा के नाम से जानी जाती हैं ।
गुरुपूर्णिमा उन महर्षि व्यास के नाम पर है, जिन्होंने चारों वेदों का व्यास किया था, पंचम वेद महाभारत की रचना की थी और पुराणों का प्रणयन भी किया था। ये वेदव्यास के नाम से भी जाने जाते हैं। महर्षि व्यास एक श्रेष्ठ गुरु के प्रतिनिधि हैं। विचारणीय है कि कैसे गुरुपूर्णिमा का पवित्र दिन एक बहुत बड़ा दिन हो जाता है- गुरु की पूजन, वंदन और विश्वास का दिन। माता-पिता के बाद यदि कोई पूजनीय माना गया है तो वह गुरु ही है। वह हमें ज्ञान देता है जिससे हमारा व्यक्तित्व विकसित होता है। भारतीय संस्कृति में ज्ञान की सर्वाधिक महत्ता है, इसीलिए समाज में गुरु का भी विशेष स्थान है। वैसे तो प्रतिदिन गुरुवन्दन करणीय है, पर इसे समारोहपूर्वक मनाने के लिए एक दिन पर्व के रूप में रखा गया है।
पिता और गुरु अपने पुत्र और शिष्य को सब कुछ दे देना चाहते हैं । उससे पराजय की कामना करते हैं जिससे उनका यश हो। कभी पिता लोभवश कुछ अपने पास बचा कर रख भी ले, परन्तु गुरु कभी भी कुछ भी ज्ञान अपने पास छुपा कर नहीं रखना चाहते, सब कुछ निस्पृह भाव से शिष्य को दे देना चाहते हैं उसके जीवन को विश्वास से परिपूर्ण करना चाहते हैं ।
गुरुपूर्णिमा मना कर हम अपने आदरणीय गुरुजनों को सादर स्मरण करते हैं और इस तरह् जीवन में ज्ञान की उपयोगिता को स्वीकार करते हैं। गुरुपूर्णिमा अप्रत्यक्ष रूप से उदात्त चरित्र, अनुशासित जीवन, और सम्यक ज्ञान की महिमा स्वीकार करने का दिन है – तस्मै श्री गुरवे नमः ।
– डॉ. शशि तिवारी,अध्यक्ष, वेव्स –भारत
संक्षिप्त में गुरूर्णिमा की गौरवशाली गरिमा व्यक्त किया गया है इस लेख में।
पिता और गुरु एक अंतर है कि पिता सदैव संतान से उम्र में बड़ा होता है पर ये बात गुरु पर लागू नहीं होती है। गुरु उम्र जाति लिंग सम्प्रदाय आदि से परे होता है। यहाँ तक कि गुरु तो मानव जाति से परे हो सकता है।
इसलिए गुरु के उन सभी विभिन्न प्रकट एवं अप्रकट रूपों को नमन!!
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Very nice observation sir!
Indeed a true definition.
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