[It was broadcasted by International Broadcast service, All India Radio, New Delhi in 2016 on the occasion of International Yog Day]
‘योग: कर्मसु कौशलम्’ यह श्लोकांश योगेश्वर श्रीकृष्ण के श्रीमुख से उद्गीरित श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय के पचासवें श्लोक से उद्धृत है। श्लोक इस प्रकार है –
“बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम्”।।इति।।
श्लोक के उत्तरार्ध पर यदि गौर करें तो दो बातें स्पष्ट होती हैं। पहली योग की परिभाषा एवं दूसरी योग हेतु प्रभु का स्पष्ट निर्देश। उनका उपदेश है कि ‘योगाय’ अर्थात् योग के लिए अथवा योग में, ‘युज्यस्व’ अर्थात् लग जाओ। कहने का तात्पर्य है कि ‘योग में प्रवृत्त हो जाओ’ यानि कि ‘योग करो’। अब प्रश्न यह है कि क्यूँ करें योग? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने श्लोक के पूर्वार्ध में दिया है कि बुद्धिमान व्यक्ति अर्थात् योगी, वर्तमान में ही अथवा इस संसार में ही ‘सुकृत’ एवं ‘दुष्कृत’ अर्थात् पुण्य एवं पाप से मुक्त हो जाता है। योग के इस हेतु को स्पष्टतया जानने के लिये, सबसे पहले यह समझना परमावश्यक है कि ‘योग क्या है’? या ‘योग किसे कहते हैं’?
(Source of Image: http://www.boisetemple.org/bhakti-yoga/)
गीता में ‘योग’ शब्द के तीन अर्थ हैं – १. समता; जैसे – ‘समत्वं योग उच्यते’ (२/४८); २. सामर्थ्य, ऐश्वर्य या प्रभाव; जैसे – ‘पश्य मे योगमैश्वर्यम्’ (९/५); और ३ समाधि; जैसे – ‘यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया’ (६/२०)। यद्यपि गीता में ‘योग’ का अर्थ मुख्य रूप से समता ही है तथापि ‘योग’ शब्द के अंतर्गत तीनों ही अर्थ स्वीकार्य हैं। इसके अतिरिक्त गीता में योग की तीन परिभाषाएं भी मिलती हैं जो कि दूसरे अध्याय के क्रमश: ४८वें एवं ५०वें श्लोक में तथा छठे अध्याय के २३वें श्लोक में निर्दिष्ट हैं। ये परिभाषाएं क्रमश: इस प्रकार हैं –
“समत्वं योग उच्यते”(गीता २/४८)
“योग: कर्मसु कौशलम्” (गीता २/५०)
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।(गीता ६/२३)
‘योग: कर्मसु कौशलम्’ के दो अर्थ लिये जा सकते हैं –
1. कर्मसु कौशलं योग: अर्थात् कर्मों में कुशलता ही योग है।
२. कर्मसु योग: कौशलम् अर्थात् कर्मों में योग ही कुशलता है।
यदि हम पहला अर्थ लें यानि कर्मों में कुशलता ही योग है तो, जो बड़ी ही कुशलता से सावधानी से ठगी, चोरी या फिर हत्या आदि कर्म करता है उसका कर्म भी ‘योग’ हो जाएगा! किन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है और फिर श्लोक में निषिद्ध कर्मों का प्रसंग भी नहीं है। अगर हम यहाँ ‘कर्म’ शब्द से केवल शुभ कर्मों का ही ग्रहण करें तब फिर ‘कर्मसु कौशलम् योग:’ इस पद के दो अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में भावार्थ निकलेंगे जो प्रसंग-विशेष में तो ठीक प्रतीत होते हैं किन्तु गीता में प्रभु द्वारा प्रतिपादित योग के सिद्धांतों से इतर सिद्ध होते हैं। आइए उन दोनों पर ही गौर करते हैं –
शुभ कर्मों में कुशलता ही योग है अर्थात् शुभ कर्मों को कुशलतापूर्वक करना ही योग है। इस अर्थ में ‘योग’ शब्द से मानसिक, बौद्धिक एवं शारीरिक समन्वयन एवं तादात्म्य अभिप्रेत है। यानि मन, बुद्धि एवं शरीर इन तीनों को एक साथ जोड़कर जब हम कोई कार्य करते हैं तो निश्चित ही उस कार्य में कुशलता या संपूर्ण दक्षता प्राप्त होती है, जिसे योग कहते हैं। व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में, यह अर्थ सटीक है एवं सफलता के सूत्र-रूप में स्वीकार्य है। आधिदैविक या अलौकिक परिप्रेक्ष्य में इसका भावार्थ यह है कि यदि कुशलतापूर्वक अर्थात् मन, बुद्धि एवं क्रिया तीनों के ही संयोग से यदि जप-तपादि अनुष्ठान किया जाए तो निश्चित ही अभीष्ट (शक्ति/सिद्धि) से योग (या संयोग) होता है।
अब यहाँ प्रश्न यह है कि उक्त दोनों ही भावार्थ, गीता में प्रतिपादित योग की संकल्पना से किस प्रकार भिन्न हैं? इसको समझने के लिए योग की परिभाषा को समझना होगा, जिसमें कहा है –
“योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्ध्यसिद्ध्यो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते”।। (गीता २/४८)
अर्थात्हे धनञ्जय! तुम योग में स्थित होकर शास्त्रोक्त कर्म करते जाओ। केवल कर्म में आसक्ति का त्याग कर दो और कर्म सिद्ध हो या असिद्ध अर्थात् उसका फल मिले या फिर न मिले, इन दोनों ही अवस्थाओं में अपनी चित्तवृत्ति को समान रखो। अर्थात् सिद्ध होने पर हर्ष एवं असिद्ध होने पर विषाद अपने चित्त में मत आने दो। यह सिद्धि एवं असिद्धि में सम-वृत्ति रखना ही योग है ।
यहाँ ‘योग’ शब्द कर्मयोग का ही बोधक है। यहाँ न केवल कर्म के स्वर्गादि फलों के छोड़ने की बात कही गयी है अपितु प्रातिस्विक फल की आशा छोड़कर कर्म करने से जो चित्त-शुद्धि या भगवत्प्रसाद आदि फल प्राप्त होते हैं, उनकी सिद्धि-असिद्धि में भी सामान भाव रखने की बात कही गयी है अर्थात् यह विचार मत करो कि इतने दिन मुझे कर्मयोग में लग गए अभी तक मेरी चित्त-शुद्धि कुछ नहीं हुई या भगवत्प्रसाद के कुछ लक्षण मुझे दिखाई नहीं दिए। तुम तो केवल कर्त्तव्य समझकर कर्म करते जाओ, इस कर्म का फल क्या हो रहा है इस ओर कोई दृष्टि ही न दो। इसी का नाम योग या कर्मयोग है। इस श्लोक की व्याख्या में कई विद्वानों ने योग का अर्थ परमात्मा से सम्बन्ध माना है यानी परमात्मा से सम्बन्ध रखते हुए कर्म करो अर्थात जो कुछ करो वह परमात्मा को प्रसन्न करने के ही उद्देश्य से करो और कर्मों को परमात्मा को ही अर्पण कर दिया करो।
योग या कर्मयोग के पूर्वोक्त स्वरूप के आलोक में अब हम पुन: योग: कर्मसु कौशलम् के उन पूर्वोक्त भावार्थों पर विचार करते हैं। अगर यहाँ शुभ-कर्मों को ही कुशलतापूर्वक करने का नाम योग मानें तो मनुष्य कुशलतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग किये हुए शुभ-कर्मों के फल से बंध जाएगा। कहा भी है– फले सक्तो निबध्यते; अत: उसकी स्थिति समता में नहीं रहेगी और उसके दुखों का नाश नहीं होगा। फलत: प्रभु द्वारा प्रतिपादित योग की संगति इस अर्थ में नहीं बैठेगी।
यहाँ एक जिज्ञासा है कि शुभ कर्मों को करने के बाद भी मनुष्य दु:ख क्यूँ पाएगा? इसका समाधान यह है कि कितना भी शुभ कर्म-करने वाला क्यूँ न हो किन्तु मनुष्य की सभी इच्छाएं पूर्ण नहीं होतीं अथवा सब कुछ सर्वदा ही उसके मनोनुकूल नहीं होता; जो कि अंतत: उसे दुःख ही पहुঁचाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर मर्यादा पुरुषोत्तम राम या फिर सत्यवादी हरिश्चंद्र, जो कि स्वप्न में भी अशुभ कर्मों से दूर रहे, उन्हें अत्यंत कष्ट क्यों झेलना पड़ता!
तब ऐसे में प्रश्न उठता है कि दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति कैसे हो? इसका उत्तर है – जीवन-मरण-चक्र से मुक्ति अर्थात् मोक्ष होने पर। ये कब होगा? उत्तर है – कर्मफलों के संपूर्ण भुक्त हो जाने पर। फिर शंका हुई कि जब तक जीवन है तब तक न तो कर्म करना कभी समाप्त होगा और न ही उसके फल का भोग और बिना फल भोगे तो कृत-कर्म की समाप्ति भी नहीं होगी; कहा है –‘नाभुक्तं क्षीयते कर्म’। कहने का तात्पर्य यह है कि कर्म से फल की उत्पत्ति एवं फल-भोगार्थ पुन: कर्म; इस प्रकार से तो यह अनवरत चलने वाला क्रम बन गया। दूसरे शब्दों में, जीवन-मरण-चक्र से मुक्ति ही नहीं होगी। यह सुनकर तो और दुःख बढ़ ही गया। अरे भाई! जब तक मुक्ति नहीं होगी तब तक दु:ख भी समाप्त नहीं होगा। यह तो बड़ी ही भारी विपदा है! क्योंकि जो व्यक्ति धरती पर आया है उसका कर्मासक्त होना और फिर इस आसक्ति के कारण दु:खी होना निश्चित है। शास्त्रों में आया है –कर्मणा बध्यते जन्तु: अर्थात् कर्मों से मनुष्य बंध जाता है। कर्म कितने ही बढियां हों, उनका आरम्भ तथा अन्त होता है और उनके फल का संयोग और वियोग भी होता है। जिसका आरम्भ और अन्त संयोग और वियोग से होता है, उसके द्वारा मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? साथ ही यह प्रश्न भी अनुत्तरित रह गया कि दु:ख के संयोग का वियोग कैसे हो? अर्थात् दु:ख का निवारण कैसे हो?
इन्हीं समस्याओं के समाधान हेतु प्रभु ने योग या कर्मयोग का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए उपदेश किया कि बिना आसक्ति रखे कर्म करना ही योग है, जिससे कारण कर्म के फल अर्थात् भोग से सम्बन्ध छूट जाता है और अन्तत: मुक्त होने के कारण दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। इसी कारण प्रभु ने ‘योग’ को दु:ख के संयोग का वियोग भी ही माना है –
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।(गीता ६/२३)
यदि उपर्युक्त अर्थ (यानि कर्मों में कुशलता ही योग है) का ही ग्रहण करना अभीष्ट हो तो फिर कुशलता का अर्थ समत्व या निष्कामभाव यानि कि ‘योग’ लेना होगा। किन्तु जब उपर्युक्त पद में ‘योग’ शब्द आया ही है तो फिर पुन: कुशलता का अर्थ योग करने की क्या आवश्यकता है? यानि “कर्मों में कुशलता ही योग है” इस अर्थ से काम नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में “योग: कर्मसु कौशलम्” का ‘योग ही कर्मों में कुशलता है’ ऐसा सीधा अर्थ क्यों न ले लिया जाए? पूर्व के श्लोक में योग की परिभाषा से स्पष्ट है कि यहाँ योग ही विधेय है कर्मों की कुशलता नहीं फिर कर्म तो नाशवान हैं; नाशवान् के द्वारा अविनाशी की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अत: महत्त्व योग का है, कर्मों का नहीं। अत: “योग: कर्मसु कौशलम्” का यही अर्थ – ‘योग ही कर्मों में कुशलता है’ उचित प्रतीत होता है।
–डॉ. श्यामदेवमिश्र, सहायकाचार्य (ज्योतिष), राष्ट्रिय-संस्कृत-संस्थान, भोपाल परिसर, भोपाल, म.प्र.
Lekha saral bhasha me pramanika tathya prastut karne se ati sarahniya hai.
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Very good, and convincing explanation of the word yoga, is given.
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yog me rahte huye karm karo…. sabhi karm swatah hi shubh ho jayege.
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Such me yog se sab kuch sahi hota h
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yoga is the soul of all
.
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Excellent
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